पार्श्वभूमी:
भारत में ‘एक देश एक चुनाव’ इस विषय पर चर्चा हो रही है। इसे लागू करने हेतु सरकार की तरफ से प्रयास भी किए जा रहे हैं। वास्तव में यह मांग पहली बार नहीं हो रही है। जब संविधान लागू हुआ था तब से अगले 16 साल तक लोक सभा और विधान सभा के चुनाव एक साथ ही कराए जाते थे। आगे चलके विविध कारणों से कुछ राज्यों में राजनीतिक अस्थिरता आई और एक साथ चुनाव कराने का यह क्रम 1967 के बाद टूट गया। फिर 1983 में पहली बार फिर एक साथ चुनाव की मांग उठी थी। चुनाव आयोग ने एक साथ चुनाव कराने का विचार सरकार के समक्ष रखा था। आयोग ने अपनी पहली वार्षिक रिपोर्ट में सात प्रमुख कारण बताते हुए लोकसभा और विधानसभाओं के लिए एक साथ चुनाव कराने की सिफारिश की थी। 2014 के चुनाव के दरम्यान भारतीय जनता पार्टी ने अपने
चुनावी घोषणापत्र में यह अधोरेखित किया था की, भाजपा राज्य सरकारो की स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए एक साथ चुनाव कराने का तरीका विकसित करने हेतु प्रयास करेगी। इसके बाद समय-समय पर अगल-अलग मंचों से एक साथ चुनाव कराने की मांग देश में उठी।
1 सितंबर 2023 को केंद्र सरकार ने ‘एक देश, एक चुनाव’ योजना की उपयोगिता का पता लगाने के लिए भारत के पूर्व राष्ट्रपति श्री राम नाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया। इस समिति में गृहमंत्री श्री अमित शाह, कांग्रेस नेता श्री अधीर रंजन चौधरी, राज्यसभा से विपक्ष के पूर्व नेता श्री गुलाम नबी आजाद, वित्त आयोग के पूर्व अध्यक्ष श्री एन. के. सिंह, लोकसभा के पूर्व महासचिव श्री सुभाष सी कश्यप, वरिष्ठ अधिवक्ता श्री हरीश साल्वे और पूर्व मुख्य सतर्कता आयुक्त श्री संजय कोठारी भी शामिल किए गए थे। लेकिन कांग्रेस के लोकसभा नेता श्री अधीर रंजन चौधरी ने इस समिति का हिस्सा बननेसे इनकार कर दिया। उन्होंने इसका कारण देते हुए कहा कि “मुझे उस
समिति में काम करने से इनकार करने में कोई झिझक नहीं है, जिसकी संदर्भ शर्तें इसके निष्कर्षों की गारंटी के लिए तैयार की गई हैं। मुझे डर है कि यह पूरी तरह से धोखा है।”
एक साथ चुनाव करानेवाले अन्य देश:
● दक्षिण अफ्रीका में राष्ट्रीय और प्रांतीय विधानसभाओं के चुनाव हर पाँच साल के लिये एक साथ ही होते हैं और नगरपालिका चुनाव दो साल बाद होते हैं।
● स्वीडन में राष्ट्रीय विधायिका और प्रांतीय विधायिका तथा नगरपालिका और विधानसभाओं के चुनाव चार साल के अंतराल में एक निश्चित तिथि यानी सितंबर महीने के दूसरे रविवार को होते हैं।
● इंडोनेशिया इस एशियाई देश में भी राष्ट्रपति और लेजिस्लेटिव चुनाव एक साथ ही कराए जाने का इतिहास है।
● इसके साथ ही हंगरी, जर्मनी, स्पेन, पोलैंड, बेल्जियम, स्लोवेनिया और अल्बानिया इन देशों में भी एक ही बार चुनाव कराने की परंपरा है।
एक देश एक चुनाव पर अगस्त 2018 में प्रसिद्ध हुई लॉ कमीशन के रिपोर्ट अनुसार एक साथ चुनावों को लागू करने के लिए, संविधान और विधानों में निम्मलिखित परिवर्तन की आवश्यकता है:
● संविधान का अनुच्छेद 83 जो संसद के सदनों की अवधि से संबंधित है, इस में संशोधन की आवश्यकता है।
● अनुच्छेद 85 में भी संशोधन की आवश्यकता है, जिस में राष्ट्रपति द्वारा लोकसभा का विघटन किया जाता है।
● राज्य विधानसभाओं की अवधि से संबंधित अनुच्छेद 172 में भी संशोधन की जरूरत है।● लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 14 और 15 में संशोधन करना आवश्यक होगा।
● लोकसभा की प्रक्रिया के जो नियम है उन में भी संशोधन की आवश्यकता है।
● राज्य के विधानसभाओं की प्रक्रिया के नियम में संशोधन की आवश्यकता है।
● सदन के सदस्यों की अयोग्यता के बारे में 10 वीं अनुसूची में संशोधन करना अनिवार्य होगा।
‘एक देश, एक चुनाव’ के पक्ष में यह तर्क दिया जाता है की इसको लागू करने से पैसे, संसाधन और समय की बचत होगी। इसके साथ ही बार बार चुनाव होने के कारण शिक्षक, सरकारी कर्मचारी और सुरक्षा बलो को समय समय पर चुनावी ड्यूटी पर तैनात किया जाता हैं। इस कारण अगर एक साथ चुनाव होते है तो इन सभी कर्मचारी वर्ग के समय की बचत होगी और वे अपने अपने कार्य को पर्याप्त समय दे सकेंगे। दुसरे तर्क के अनुसार बार बार चुनाव लेने से हर बार आचार संहिता लागू करनी पड़ती है, आचार संहिता के दरम्यान सरकार पर कोई भी योजना लागू करने पर निर्बंध होता है, इस कारण एक साथ चुनाव से आचार संहिता भी एक ही बार लागू होगी और सरकार की तरफ से विविध योजना और विकास कार्य बिना किसी बाधा के लागू हो सकेगा।
वही दूसरी ओर एक साथ चुनाव के विरोध में भी कई तर्क दिए जा रहे है। विरोध में दिए गए तर्क के अनुसार एक साथ चुनाव से भारत का संघीय ढांचा ओर संसदीय लोकतंत्र प्रभावित होगा। उसके साथ ही दूसरा तर्क ये दिया जा रहा है की भारत देश की लोकसंख्या अधिक होने के कारण और सभी राज्यों के चुनाव एक साथ लेने से चुनाव के नतीजे सामने आने के लिए अधिक समय लगेगा। कई लोगो का यह मानना है की केंद्र और राज्य सरकारों के चुनाव एक साथ लेने से स्थानिक राजनीतिक दलों को इससे नुकसान हो सकता है उसके साथ ही क्षेत्रीय मुद्दों के सामने राष्ट्रीय मुद्दे अधिक प्रभावशाली प्रतीत होंगे और क्षेत्रीय समस्याओं को नजरंदाज किए जाने की संभावना रहती है।
आगे की राह: जो भी बदलाव जनता और राष्ट्र के हित में हो उसे जरूर स्वीकार करना चाहिए। आपसी मतभेद दूर रखकर जो योग्य है उसे जरूर स्वीकार करना चाहिए। लेकिन कोई भी निर्णय बिना विचार विमर्श किए अगर लिया जाता है तो वह उतना ही घातक सिद्ध हो सकता है। इसी लिए लोकतंत्र के मार्ग पर पक्ष, विपक्ष और जनता इन तीनो की सहमति और विश्वास से ही यह योजना स्वीकार करनी चाहिए।